भारत में बेटियों के संपत्ति अधिकार को लेकर एक बार फिर चर्चा तेज हो गई है। हाल ही में हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया, जिसकी वजह से कई बेटियाँ अपने पिता की संपत्ति में हिस्सा नहीं पा सकीं। ये मामला न केवल कानून की जटिलता को उजागर करता है बल्कि समाज की सोच और महिलाओं के अधिकारों से भी जुड़ा है।
कई दशकों से बेटियों के लिए अपने पिता की संपत्ति में बराबर का हिस्सा पाने की मांग उठती रही है। कानूनों में सुधार और अदालत के कई फैसलों के बाद भी कुछ मामलों में बेटियों को उनके हिस्से से वंचित रहना पड़ता है। खासकर, जिन मामलों में पिता की मृत्यु पुराने कानून लागू होने के दौरान हुई थी, उनमें स्थिति और भी उलझन भरी हो जाती है।
Father Property Rights
हाल ही में बॉम्बे हाईकोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया जिसमें कहा गया कि जिन पिता की मृत्यु 1956 से पहले हो गई थी, उनकी बेटियों को पैतृक संपत्ति में कोई अधिकार नहीं मिलेगा। अदालत ने साफ कहा कि 1956 में लागू हुए हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम (Hindu Succession Act) से पहले, ऐसी बेटियों के लिए कानून में किसी भी प्रकार की संपत्ति का अधिकार नहीं था, खासकर तब जब पिता के साथ उनकी विधवा मां भी जीवित थी।
इस फैसले का मुख्य कारण यह था कि 1956 के अधिनियम से पहले विरासत के कानून बेटियों को वारिस मानने की छूट नहीं देते थे। हिंदू महिलाओं के संपत्ति अधिकार अधिनियम 1937 में सिर्फ बेटों को ही पैतृक संपत्ति का वारिस माना गया था, बेटियाँ इसमें शामिल नहीं थीं। इस तरह, अगर पिता की मृत्यु 1956 से पहले हो जाती है तो उनकी बेटियाँ संपत्ति में हक नहीं जता सकतीं।
कानून के मुख्य बिंदु
वर्ष | लागू नियम/कानून | बेटियों का अधिकार |
---|---|---|
1937 | Hindu Women’s Right to Property Act | अधिकार नहीं |
1956 | Hindu Succession Act | बेटी को वारिस बनाया गया |
2005 संशोधन | Hindu Succession (Amendment) Act | बेटियों को बराबरी का हक |
1956 के कानून के बाद बेटियाँ पिता की संपत्ति में बराबरी की वारिस बनीं, चाहे वे विवाहित हों या अविवाहित। 2005 के संशोधन ने उनके अधिकार और मजबूत बनाए। लेकिन ये अधिकार सिर्फ उन्हीं मामलों में लागू होते हैं जब पिता की मृत्यु 1956 के बाद हुई हो।
कौन-सी बेटियाँ वंचित रहीं, और क्यों?
अगर किसी पिता की मृत्यु 1956 से पहले हो गई और उनके पीछे उनकी पत्नी (बेटियों की मां) जीवित रहीं, तो संपत्ति का अधिकार केवल मां को मिलता था। बेटियों को इस स्थिति में कोई अधिकार नहीं था। ऐसा प्रावधान पुराने कानूनों की वजह से था, जिनमें बेटियों या बहनों को उत्तराधिकार का हिस्सा नहीं मिलता था।
हाईकोर्ट ने कहा कि अगर विधायिका यानी संसद चाहती तो बेटियों के लिए कानून में प्रावधान जोड़ सकती थी, लेकिन 1956 से पहले ऐसा नहीं था। इसीलिए ऐसी बेटियाँ कानूनी रूप से अपने पिता की संपत्ति में दावा नहीं कर सकतीं। यह फैसला उन परिवारों पर भी लागू होता है जहां पिता की संपत्ति पर बेटों और बेटियों के बीच विवाद चल रहा हो, और मृत्यु 1956 से पहले हुई हो।
बेटियों के अधिकार: अब क्या है स्थिति?
- 1956 के बाद सभी बेटियाँ अपने पिता की संपत्ति में बराबरी की हकदार हैं।
- हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम 2005 के बाद यह अधिकार और मजबूत हो गया है।
- अगर पिता ने अपनी संपत्ति का वसीयतनामा किया है, तो उसकी शर्तें लागू होंगी। वरना बेटे और बेटियों को समान हिस्सा मिलेगा।
- अगर संपत्ति स्व-अर्जित (Self-acquired) है और पिता ने वसीयत की है, तो वे जिसे चाहें संपत्ति दे सकते हैं।
अदालत के फैसले का असर
यह हाईकोर्ट का फैसला उन परिवारों के लिए दिशा-निर्देश है, जिनके पिता की मृत्यु 1956 से कई वर्ष पहले हो गई थी। अब अदालत ने स्थिति स्पष्ट कर दी है कि इन मामलों में बेटियाँ कानूनी रूप से संपत्ति में हकदार नहीं हैं।
वर्तमान में, 1956 के बाद से बेटियों को अनुभव और अधिकार दोनों मिले हैं। अगर कोई कानूनी विवाद है, तो अदालत दोनों पक्षों की दलीलें सुनकर ही फैसला करती है।
संक्षिप्त जानकारी
हाईकोर्ट के हालिया फैसले से यह साफ हो गया है कि 1956 से पहले पिता की मृत्यु होने पर बेटियों को पैतृक संपत्ति में हक नहीं मिलेगा। 1956 के बाद और खास तौर पर 2005 के संशोधन के पश्चात बेटियों के अधिकारों को बराबरी दी गई है। इसलिए हर महिला और परिवार को अपने अधिकार की जानकारी होनी चाहिए ताकि जरूरत पड़ने पर उचित कानूनी मदद ली जा सके।
यह फैसला भारत में उत्तराधिकार कानून की स्पष्टता और पारदर्शिता का एक बड़ा उदाहरण है, जो भविष्य में होने वाले परिवारिक विवादों में भी मार्गदर्शन देगा।